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पारा  चढ़ते ही घुमंतु गुज्जरों ने किया पहाड़ी क्षेत्रों का रूख

हिमवंती मीडिया/शिमला 
मैदानी इलाकों में पारा बढ़ने के साथ ही  घुमन्तुं गुज्जरों  ने पहाड़ी क्षेत्रों का रूख कर दिया है । इस समुदाय का कोई स्थाई ठिकाना नहीं है फिर भी यह समुदाय अपने व्यवसाय से प्रसन्न है  । जब पहाड़ो पर बर्फ एंव अत्यधिक सर्दी आरंभ होने पर यह घुमन्तु गुज्जर अपने परिवार व मवेशियों  के साथ  मैदानी क्षेत्रों में चले जाते हैं और गर्मियों के दौरान ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पहूंच जाते है। सबसे अहम बात यह है कि इस समुदाय के लोगों को बेघर होने का कोई खास मलाल नहीं है। आधुनिकता की चकाचैंध से कोसों दूर घुमंतु गुज्जर वर्ष भर भैंस के जंगल-जंगल घूमकर कठिन व संघर्षमय जीवन यापन करते हैं। बता दें कि गर्मियों  के दिनों घुमंतु गुज्जर समुदाय के लोग नारकंडा, चांशल और चूड़धार के जंगलों में रहते है। जबकि सर्दियों के दौरान नालागढ़, बददी, पांवटा, दून और सिरमौर जिला के धारटीधार क्षेत्र में चले जाते हैं।
मवेशियों को लेकर नारकंडा जा रहे शेखदीन व कमलदीन गुज्जर ने बताया कि आजादी के 75 वर्ष बीत जाने पर भी किसी भी सरकार ने उनके संघर्षमय जीवन बारे विचार नहीं किया और भविष्य में उमीद भी नहीं है। इनका कहना है कि दो जून की रोटी कमाना उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण है। दूध, खोया, पनीर इत्यादि बेचकर यह समुदाय रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करता है। हालांकि कुछ गुज्जरों को सरकार ने पटटे पर जमीन अवश्य दी है परंतु अधिकांश गुज्जर घुमंतु ही है। शेखदीन का कहना है कि विशेषकर बारिश होने पर खुले मैदान में बच्चों के साथ रात बिताना बहुत कठिन हो जाता है। बताया कि उनके बच्चे अनपढ़ रह जाते हैं। सरकार ने घुमंतु गुज्जरों के लिए मोबाइल स्कूल अवश्य खोले हैं परंतु स्थाई ठिकाना न होने पर यह योजना भी ज्यादा लाभदायक सिद्ध नहीं हो रही है। घुमंतु गुज्जर अपने आपको मुस्लिम  समुदाय का मानते हैं परंतु इनके द्वारा कभी न ही रोजे रखे गए हैं और न ही कभी नमाज पढ़ी जाती है। कमलदीन का कहना है कि अनेकों बार जंगलों में न केवल प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है। बल्कि जंगली जानवरों से जान बचाना मुश्किल हो जाता है। जंगलों में बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा इत्यादि सुविधाएं न होने के बावजूद भी इस समुदाय ने किसी सरकार के समक्ष अपनी समस्या नहीं रखी।

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