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मैं यरूशलम हूँ

लेखक – शशि मोहन सिंह

मैं यरूशलम हूँ।
मेरे बदन से रिसता रहता है
ख़ून अक्सर
अभी-अभी कुछ
उत्साही युवकों ने
अपने धर्म की रक्षा हेतु
गगनभेदी नारों के साथ
उछाले हैं कुछ पत्थर
उन पत्थरों ने मेरे माथे को
चीरते हुए
मेरे दिमाग की नसों को
फाड़ दिया है ।।

आदम की कुछ संताने
अपनी श्रेष्ठता के
अहम् से ग्रस्त
अपनी मानसिकता को
बदल कर
एक उन्मादी भीड़ की
शक्ल में
हो गए अचानक गुत्थम-गुत्था
मैं यरूशलम
बीच-बचाव की कोशिश में
हो गया अस्थिभंग का शिकार
मैं यरुशलम
मेरी आँखों से
बह रहे हैं आँसू
क्योंकि सैनिकों ने दागे हैं
अश्रु गैस के गोले ।।

हालाँकि
प्रदर्शनकारियों की भीड़
हो गई है तितर-बितर
मगर मैं स्थिर हूँ
अपनी जगह पर
महसूस करते हुए
अपनी आँखों में
तीव्र जलन को
हाँ ! मैं वही यरुशलम हूँ
जिसकी जमीन पर
पैदा हुई कई सभ्यताएँ
और इन्हीं सभ्यताओं से
जन्में असभ्य बच्चों ने
अपनी पाशविक प्रवृत्तियों से
संचालित होकर
मेरे जमीन को किया है
रक्त रंजित ।।

हाँ ! हाँ ! मैं वही यरुशलम हूँ
जिसकी उर्वर जमीन पर
तीन-तीन महान धर्मों की
फसल हुईं फलीभूत
संस्कृतियों ने
पाया मेरा प्यार-दुलार
अपनी इन्हीं उपलब्धियों से
गौरवान्वित यरूशलम
आज ले रहा है सिसकियाँ
क्योंकि
मेरे ही बदन पर
सभ्यताओं ने खेला है
खूनी खेल
रचे गए षड़यंत्रों के
कुटिल अध्याय
कई धर्म
अपने अस्तित्व की
रक्षा के नाम पर
इस कदर उलझ रहे हैं कि
सदियों से मेरे सीने पर
हो रहे हमले
कभी क्रूसेड के नाम पर
तो कभी इबादतगाह की
मिल्कियत के नाप पर
मैं यरुशलम ।।

आवाक खड़ा हूँ
तब से अब तक
हतप्रभ
लेकर अपने बदन पर
खून के तमाम धब्बे
सदियाँ बदलती हैं
इतिहास बदलता है
बदलते हैं युद्ध के हथियार
घोड़ों की टॉप
और तलवार की खनक की
जगह
रॉकेट और मिसाइल की
विध्वंसक तीव्रता ने ले ली
बदलते दौर में
सब कुछ बदलता है
नहीं बदलता तो मैं यरुशलम
जो खड़ा है अपनी
भयावह पीड़ा के संत्रास को
भोगते हुए
अपनी आँखों के सामने
देखने को
अभिशापित मानवता का वध
सभ्यताओं की
स्खलित असभ्यता, संस्कृतियों की।।

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