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शीर्षक – ”मैं बुजुर्ग हूं”

लेखक – हेमराज राणा  

पक गई जिन्दगी की फसल, जो वो बो गए …….
ढल रही है उम्र बेशक बुजुर्ग हो गए !

वक्त के फिसलते लम्हों से मजबूरी बन गई…….
रिश्तों में स्वार्थ ढूंढने वालों से दूरी बन गई!

सोचा था उम्रभर लहू से सींचे पेड़ फल देंगे ……
मगर ये जान नहीं पाए , छोड़कर बच्चे भी चल देंगे!

घुटने चलने नहीं देते फिर भी हम कहां रुकने वालें है ………
चल देंगे सहारे से भी बेबसी के आगे कहा झुकने वाले !

अब तो पांव भी जानी पहचानी , गलियों तक ही जा पाते है ….
अब स्वाद किसे चखना, बस जरूरत का ही का पाते है!

त्योहारों पर ही बच्चों की खबर आती है……
अब तो उनकी तस्वीर भी धुंधली नज़र आतीं है!

कम सुनाई देता है यह भी मैं मान लेता हूं…….
पर अपंनो की तो आहट से पहचान लेता हूं !

अपनी मिट्टी को खुशबु से भांप लेता हूं……
बिन फीते ही कोई दूरी माप लेता हूं मैं!

चेहरे पर पड़ी झुर्रियों से बयां होता है…..
ढलती उम्र के साथ तुजुबा नया होता है!

आंसु भी सुख गए ,अब तो बच्चों का इन्तजार है….
हमको ना समझ सके वो उनसे अपना संसार है !

बाल सफेद हुए ओर हाथ भी कमजोर हो गए ……
उम्र के अंतिम पड़ाव में अपने भी पराए हो गए!

वो गहरे भाव और हित की बातें नहीं होती…..
महिनों ,साल , बित जाने पर भी बच्चों से मुलाकातें नहीं होती !

दवाओं ने दामन थाम लिया ,बस कुछ दिन और जीना है….
जीवन का सच बतलाया तुम्हें, ये ग़म का जहर ही पीना है !
पक गई जिन्दगी की फसल जो वो बो गए……….
ढल रही है उम्र बेशक बुजुर्ग हो गए है !

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