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जो समय है…अभी तक बीता, मुखड़े की जगह मुखौटा है… कद से भी तो आदमी छोटा है

लेखक – ज्योति अग्रवाल

* आदमी *
अगणित पीर संजोए मन में,
रह रह तांके…दूर दूर गगन में,
बाहर से तो है…सब भरा भरा
पर अंतर्गघट…रीता का रीता।
चल रहे, नहीं मंजिल कोई,
बस भंवर ही, नहीं साहिल
कोई…

कितना निष्फल… कितना
दारुण…
जो समय है…अभी तक बीता।
मुखड़े की जगह मुखौटा है…
कद से भी तो आदमी छोटा है।
सारे रिश्ते, ज्यों हो लाल
मिर्च…
दिखती लाली ऊपर, भीतर
तीखा।
सब हांक रहे हैं…
अपनी-अपनी…
साल रही अपनी ही करनी…
रावण भी जपता “राम- राम”
और सूर्पनखा “सीता- सीता”।
अपना हक मांगो, तो
अज्ञातवास…

सच कहो… क्या बांधोंगे
मोहपाश…
हे पार्थ …..तुम भी चकित…
केशव भौचक ???
देखो दुर्योधन बांच रहा है…
“गीता”।
सच मानो….
आदमी ही है…
सबसे गया बीता।

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