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संघर्ष का दूसरा नाम जगत सिंह नेगी (पूर्व विधायक)

पूर्व विधायक जगत सिंह नेगी हिमाचल की एक ऐसी शख्सीयत रहे हैं जिन्हें एक तेज-तर्रार नेता के रूप में जाना जाता था। अपने अपको पूर्व मुख्यमंत्री व पूर्व केन्द्रीय मंत्री शांता कुमार का करीबी कहलवाने में इन्हें गर्व था।
हिमाचल प्रदेश सबसे पिछड़े व दुर्गम विधानसभा में से शिलाई के एक दुर्गम क्षेत्र के गांव में 15 नवम्बर 1947 को जन्में इस बालक ने पूरे प्रदेश में अपनी एक अलग ही पहचान बनाई। इनकी माता मुंगा देवी व पिता सुखराम एक सीधे-साधे कृषक परिवार के मुखिया थे। इनकी दो बहनें व एक भाई हैं। भाई जातीराम गांव में खेती-बाड़ी का कार्य देखते हैं।
इनकी प्रारम्भिक शिक्षा शिलाई से शुरू हुई और वैद्धिक कॉलेज विकासनगर से इन्होंने 10$2 की शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद बी.ए.एल.एल.बी. की शिक्षा इन्होंने डी.ए.वी. स्कूल कॉलेज देहरादून से प्राप्त की। इनका विवाह 8 दिसम्बर 1966 को शिलाई क्षेत्र के ही प्रख्यात जेलदार धर्म सिंह की सुशिक्षित पुत्री भानु से हुआ। इनके ससुर धर्म सिंह की लोकप्रियता का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1952 के विधानसभा चुनाव में इन्होंने हिमाचल निर्माता डा. यशवन्त सिंह परमार को भी पटखनी दे दी थी।
जगत सिंह नेगी के परिवार में दो पुत्र आये। बड़े पुत्र राजेन्द्र नेगी एक अधिवक्ता हैं और छोटे पुत्र सुरेन्द्र नेगी एक व्यवसाई हैं और दोनों ही अपनी- अपनी पत्नी व बच्चों के साथ इनके संयुक्त परिवार का एक हिस्सा हैं। इनके दोनों पुत्र भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चल रहे हैं और दोनांं में ही नेतागिरी के पूरे गुण हैं। बड़े बेटे राजेन्द्र नेगी तो भाजपा नेता सिरमौर के महासचिव भी रह चुके हैं तथा संगठन ने इन दोनों भाईयों को समय-समय पर अनेकों जिम्मेदारियां भी सौंप रखी है।
जगत सिंह में कॉलेज के समय से ही राजनीतिक कीटाणु मौजूद थे। शिलाई विधानसभा क्षेत्र का पहला चुनाव इन्होंने 1877 में जनता पार्टी के टिकट पर लड़ा और कांग्रेस के दिग्गज़ ठाकुर गुमान सिंह से मात्र 94 वोटों से पिछड़ गये। अपनी इस हार का बदला वह ठाकुर गुमान सिंह ने तो नहीं ले पाये अपितु 1990 में लगभग 4हजार मतों से इन्होंने गुमान सिंह के पुत्र को हराकर अपनी हार का बदला लिया और पहली बार विधानसभा में पंहुच गये। इस जुझारू नेता ने 7 बार चुनावों में अपना मुकद्दर आजमाया परन्तु जीत केवल एक ही बार हाथ लगी। इन्होंने कभी भी हिम्मत नहीं हारी।
2003 के विधान सभा चुनाव के बाद मधुमेह की बीमारी ने इन्हें पूरी तरह परस्त कर दिया और अनेकों अस्पतालों के चक्कर काट -काट कर 24 अक्टूबर 2007 को दिल्ली के प्रतिष्ठित सर गंगाराम अस्पताल में इनका गुर्दा बदला गया और वह गुर्दा आधुनिक सावित्री भानु देवी ने इन्हें देकर महिलाओं के सामने एक आदर्श मिसाल कायम की। उस क्षण को याद कर जगत सिंह नेगी की आंखें नम हो जाती है जब इन्हें अपनी पत्नी के दिये गये गुर्दे से जीवनदान मिला था। इनका कहना है कि पहला जीवन तो इन्हें इनकी माता मुंगा देवी से मिला था और अब दूसरा जीवन निश्चय ही इनकी पत्नी भानु से मिल पाया है।
18 अक्टूबर 2009 को पुनः घर के बाथरूम में ही गिर जाने से कुल्हें की हड्डी टूटने पर एक बार फिर से इन्हें परेशानी ने घेर लिया लेकिन इन्होंने किसी भी परिस्थिति में अपना धैर्य नहीं खोया और आज पूरी तरह स्वस्थ होकर पहले की तरह चिर- परिचित शैली में दहाड़ रहे हैं। इनका जीवन शुरू से ही संघर्षमय रहा है।
1973 में वकालत पास करने के बाद पांवटा के निकट कोटड़ी-माजरी प्रोजैक्ट के मजदूरों की पैरवी करने के आरोप में तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने इन्हें मीसा के अन्तर्गत जेल भेज दिया था जो बाद में हाईकोर्ट के आदेश के बाद इनकी रिहाई संभव हो पाई। 1974 में कांग्रेस के विद्रोही नेता पूर्व मंत्री गुमान सिंह व इन पर झूठा डकैती का केस दर्ज हुआ। 1975 में इमरजैंसी के दौरान भी इन्हें जेल की हवा खानी पड़ी तथा बावरी मस्जिद विध्वंस के दौरान 1993 में इन्हें एक बार फिर राजनैतिक प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा और जेल भेजा गया।
अपने जीवन का एक लम्हा इनकी याद में आज भी शामिल है, जब पूर्व विदेशमंत्री सरदार स्वर्ण सिंह के पांवटा आगमन पर विदेशमंत्री के काफिले को रोकने का इन पर झूठा मुकद्दमा बनाया गया था और जब गवाह के तौर पर इन्होंने स्वर्ण सिंह को ही अदालत के कटघरे में खड़ा करने की बात कही तो मज़बूरीवश कांग्रेस सरकार को भी इनके खिलाफ दर्ज किये गये अपराधिक मामले को वापिस लेने को मज़बूर होना पड़ा। 2007 और 2008 के दो वर्ष इनके जीवन के सबसे कठिन दौर के दिन रहे लेकिन अपने पौते रघुराज प्रताप सिंह व पौत्रियां सृष्टि, वैष्णवी व जिज्ञासा के साथ -साथ सभी परिजनों, ईष्ट मित्रों व शुभचिन्तों की बदौलत यह अब पूरी तरह स्वस्थ हैं।
इनके दोनों बेटों की पत्नियां उच्चशिक्षित हैं तथा दोनों ही अध्यापन व्यवसाय में कार्यरत हैं। आधुनिक सावित्री के रूप में इनकी पत्नी इनकी सेवा में हर समय लगी रहती हैं जिसकी वज़ह से यह पूर्णरूपेण अपने आप को स्वस्थ मानते हैं।
अपने राजनैतिक गुरू हेमवती नन्दन बहुगुणा व देश के प्रधानमंत्री रहे चन्द्रशेखर को मानते हैं। वहीं बाल्यकाल में जिनसे इन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी उन्हीं गुरू स्व0 सतप्रकाश प्रभाकर को अपना आदर्श गुरू मानते हैं।
अब 17.12.2018 को यह शेर सदा के लिए चिरनिद्रा में सौ गया है। उन्होंने दिल्ली के सर गंगा राम अस्पताल में 15 दिन जीवन मृत्यु के बीच जुझकर मृत्यु को गले लगा लिया। उनके देहान्त की खबर सुनकर पूरा शिलाई ही मानो पांवटा में उनके निवास स्थान पर उमड़ आया हो। हजारों लोग अपने प्रिय के अन्तिम दर्शनों के लिए उमड़े पड़े। शव यात्रा में भी अपार जनसमूह मौजूद था। पहाड़ी परम्परा के अनुसार पूरे शिलाई क्षेत्र से अपने वाद्ययंत्रों के साथ 40 कलाकार उनकी शवयात्रा के आगे शोक धुन बजा रहे थे। इनकी अन्तिम यात्रा में दूरदराज के क्षेत्र से एक ऐसा व्यक्ति भी शामिल था जिसके दोनों टांगे भी नहीं थी। शायद इनके प्रेम के वशीभूत होकर ही वह अपाहिज यहॉं आया होगा। गरीबों एवं मज़लूमों को उनसे कितना प्यार था इसका अन्दाजा इस व्यक्ति को देखकर सहज़ ही लगाया जा सकता है। इस तरह यह महान व्यक्तित्व सदा के लिए हमसे दूर हो गया।

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