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हमारे देश के पूर्वी प्रान्तों में घटती हिन्दू जनसंख्या क्या सचमुच चिंता का विषय है ?

 

                       लेखकः- जयदेव विद्रोही

लगभग 8 वर्ष पूर्व हिमाचल प्रदेश की एक चर्चित मासिक पत्रिका में आर.एस. एस. के पूर्व सर संघ प्रमुख वैद्य का भारत के पूर्वी प्रांतों में दिन-प्रतिदिन घटती जा रही है। हिंदू जनसंख्या पर चिंता प्रकट करते हुए एक लेख प्रकाशित हुआ था है। आंकड़ों द्वारा समर्थित तथ्य के यथार्थ पर ऐसी तस्वीर खींची थी जिसका सही रूप प्रत्यक्ष में हमारे सम्मुख आ गया। लेख पर कुछ हिंदू संगठनों कुछ राजनीतिक पार्टियों ने राष्ट्रीय एकता के दृष्टिगत विरोध जताया था,जो उन दिनों इन पंक्तियों का लेखक सक्रिय पत्रकारिता से जुड़ा था। वैद्य के इस लेख के ऊपर की गई टिप्पणियां पढ़कर इक़बाल का एक पुराना शेर याद आ गया था।  “वतन की फिक्र कर नादांं कयामत आने वाली है”।

अभी कुछ वर्ष ही गुज़रे हैं कि कथित पंक्ति का साकार रूप हमारे सामने है। मुस्लिम समाज में अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या का और ही ढंग से समर्थन कर डाला। इसी वृद्धि का स्वागत करते हुए भविष्य में मुस्लिम बाहुल्य द्वारा भारत में इस्लाम का बहुमत होगा और वे लोग ही भारत को फिर से अपना गुलाम बना लेंगे। विघटन की इस कुंठित सोच ने दिल्ली के इस वर्ष फरवरी-मार्च में जमुना पार क्षेत्रों में जातीय दंगो के रूप में खुलकर खेल खेला गया तथा जाफराबाद जैसे कुछ और क्षेत्रों में भी हिंसा का खुलकर तांडव हुआ। एक और अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप दिल्ली पहुंचे तो दूसरी और जातीय दंगे भड़क उठे। इधर दिल्ली शहर के शाहीन बाग में तीन मास तक मुस्लिम महिलाओं के लगातार धरने ने इतिहास रच डाला, मुद्दा बना नागरिकता के सी.ए कानून का।

यह धरना दूध मूंही बच्चियों से लेकर अस्सी वर्षीय वृद्ध महिलाओं का रिकार्ड बना, जिसे हटाने में प्रशासन , सरकार तथा समाज सेवी संस्थाओं तक ने अपने हाथ खड़े कर दिए। धरने ने ऐसा रंग दिखाया की शाहीन बाग के पास पड़ोस के इलाकों में लगने लगा था कि यहां भी जातीय दंगे भड़क उठेंगे। परंतु बिगड़ती बात ने हिंसा की शक्ल धारण नहीं की। यह भी एक मिसाल बनी, नया इतिहास बना। कहा जाता है कि कोई भी मुस्लिम महिला रात को भी धरना छोड़ कर अपने घर नहीं गई और यह क्रम लगभग तीन माह तक निरंतर चलता रहा। इसका प्रमुख कारण यही है कि राज्य सरकारों ने आंदोलन को कुचलने हेतु जो हथकंडे अपनाने थे, वे तो अपनाए ही, परंतु उसका एक सुखद पहलू यह रहा कि कर्नाटका, बंगाल तथा पड़ोसी राज्यों की हिंदू महिलाएं मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनकर आंदोलन का समर्थन करते देखी गई ।

यहां तक कि कुछ हिंदू लड़कियों ने इस आंदोलन को अपने हाथ में लिया हुआ था और टीवी उनकी गतिविधियों को प्रमुखता से दिखा रहा था। तब तक तो यह लग रहा था कि यह धरने केवल मुस्लिम समाज के हैं, परंतु धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता चला गया कि यह तो केवल सन् 1952 से पूर्व राष्ट्रीय नागरिकता से जुड़ा हुआ है। यदि यह आंदोलन केवल दिल्ली के शाहीन बाग तक ही सीमित रहता, तो दंगे भड़कने की देर न लगती। इसका प्रमाण यह है कि दिल्ली के लगभग सभी विश्वविद्यालयों के युवा मुस्लिम छात्रों ने शाहीन बाग में पहुँचकर खुलकर भड़काऊ भाषण दिए, जो राष्ट्रविरोधी थे। इसके अतिरिक्त विघटनकारी शक्तियां भी पीछे नहीं थी भले ही उन्हें तोड़फोड़ का कोई मौक़ा हाथ लगने नहीं दिया। इतने में राष्ट्रीय नागरिकता बिल लोकसभा में पास होकर अधिनियम बन गया। जितना ज़हर उगला गया शायद ही कभी उगला होगा।

स्थान-स्थान पर सुनियोजित ढंग से एक बात रह जाती है। हालांकि यह बिल पास होकर अधिनियम बन चुका है, किंतु अभी लागू नहीं हुआ। इसे लागू करने हेतू नीति निर्धारकों को बड़े शांत भाव से हर पहलू को समक्ष रखते हुए गम्भीरता से सोचना होगा। हमें दांएं-बांए के पड़ोसियों की गीदड़ भभकियाँ दूसरी ओर विघटनकारी अवांछित देश विरोधी शक्तियों से निपटना समय की मांग है। उधर तत्कालीन आर एस. एस. प्रमुख वैद्य की यथार्थ भरी चेतावनी पर भी गंभीरता से सोचना अति आवश्यक है। इस संदर्भ में मुझे इकबाल का यह शेर बरबस याद आ जाता है :-
“ना समझोगे तो मिट जाओगे
ऐ हिंदुस्तान वालो,
तुम्हारी दास्तांं तक भी न होगी
दास्तानों में”

अभिप्राय यह है कि इस्लामी कानून के तहत पुरुष चार शादियां कर सकता है तथा एक परिवार में कम से कम वर्ष में 4 बच्चों का जन्म हो सकता है, जबकि हिन्दू के घर मे केवल1 बच्चे का जन्म हो सकता है। क्योंकि एक हिन्दू परिवार में एक पत्नी अधिक से अधिक 1 बच्चे तक ही सीमित रह जाती है। 10 साल में कह सकते हैं कि देश की मुस्लिम जनसंख्या कहां पहुंच जाएगी और हिंदू की इसी अनुपात के अंतर्गत कहां। यही तो एक कारण है कि जिससे अनुपात की दृष्टी से जनसंख्या का गणित गड़बड़ा जाता है।

समय बीत रहा है। पुलों के नीचे बहुत पानी बह चुका है। हिंदू नीति निर्धारकों को तत्कालीन संघ प्रमुख वैद्य की चेतावनी को ध्यान में रखना कितना जरूरी है। यह बात किसी से भी नहीं छुपी है कि अभी कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया ने अराजकता की सम्भावना पर अपना ज्यूरी का निर्णय पारित किया है कि तबलीगी जमात की राजनीतिक सोच नहीं है न ही इसे राजनीति से कुछ लेना देना है। इसके बावजूद न्यायालयों की सोच को कई बार अवांछित तत्वों ने धत्ता भी तो दिया है। इस सम्भावना को सम्मुख रखते हुए समाज के हर वर्ग को कंधे के साथ कन्धा मिलाकर चलना होगा तथा भड़काऊ भाषण और दंगों की राजनीति से अपना दामन भी छुड़ाना होगा। तभी जाकर कहीं देश का नागरिक चाहे वह हिन्दू है या मुसलमान। इस चिंता से मुक्त हो पाएगा। कहीं ऐसा न हो कि :-

तुम्हारी तहजीब खुदकुशी करेगी अपने ही खंजर से
जो शाखे नाजुक पर आशियां बनेगा न पाएदार होगा।

इस लेख मे सभी वर्णित बातें लेखक के अपने विचार हैं। इसमें संपादक या समाचार पत्र का सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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